केंद्र के कृषि विधेयकों का किसान सड़कों पर तो विपक्ष संसद में पुरजोर विरोध कर रहा है. यहां तक कि केंद्र सरकार में शामिल शिरोमणि अकाली दल भी इसके विरोध में उतर आई. उसकी नेता हरसिमरत कौर इन विधेयकों को किसान विरोध बताते हुए मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया. इन सबके बावजूद रविवार को राज्य सभा ने दो विधेयकों को ध्वनिमत से पास कर दिया. इसमें कॉन्ट्रेक्ट फार्मिंग से जुड़ा किसान (सशक्तिकरण और संरक्षण) मूल्य आश्वासन और कृषि सेवा समझौता विधेयक भी शामिल है.
इन 10 बिंदुओं से समझिए कि सरकार इस विधेयक से किसानों को क्या-क्या फायदा होने के दावे कर रही है और इस पर कौन-कौन से सवाल उठ रहे हैं?
सरकार के दावे
- किसान एग्रीबिजनेस और प्रोसेसिंग से जुड़ी कंपनियों, थोक कारोबारियों, निर्यातकों और बड़े खुदरा व्यापारियों के साथ पहले से तय कीमत पर फसलों को बेचने का कॉन्ट्रेक्ट कर सकेंगी. इससे बाजार में फसलों की कीमत में उतार-चढ़ाव के जोखिम और उसे बेचने के लिए बाजार को खोजने जैसी चुनौती से राहत मिल सकेगी.
- देश में छोटी जोत वाले किसान भी कंपनियों के साथ कॉन्ट्रेक्ट करके आधुनिक खेती कर सकेंगे. इससे इन किसानों तक आधुनिक तकनीक और गुणवत्तापूर्ण इनपुट पहुंचेगा और इससे उत्पादन और किसानों की आय बढ़ेगी. नेशनल सैंपल सर्वे ऑफिस (NSSO) के 70वें दौर के सर्वे के मुताबिक, देश में 86 फीसदी किसानों के पास दो हेक्टयर से कम जमीन है.
- किसानों को एक फसल चक्र से लेकर पांच साल तक की अवधि तक और बागवानी फसलों में इससे ज्यादा समय तक कॉन्ट्रेक्ट करने की छूट होगी. इससे उन्हें लाभ-हानि के आधार पर कॉन्ट्रेक्ट को जारी रखने या इससे पीछे हटने की भी छूट होगी.
- किसानों का उसकी जमीन पर मालिकाना हक पूरी तरह से सुरक्षित रहेगा. कॉन्ट्रेक्ट करने वाला किसी भी सूरत में किसान की जमीन नहीं खरीद सकेगा. इसके अलावा उस पर कोई स्थायी निर्माण भी नहीं कर सकेगा.
- कॉन्ट्रेक्ट फॉर्मिंग में आने वाले विवादों को जल्द से जल्द निपटाने के लिए अलग प्रक्रिया लाई गई है. इसमें शिकायत आने पर उपजिलाधिकारी (SDM) को 20 दिन में शिकायतों को निपटाना होगा.
किसानों के सवाल
- कानूनी जानकारी या बाजार की जरूरतों को समझने में किसान कंपनियों के मुकाबले कमजोर साबित होंगे. अगर किसान कंपनियों के साथ मोलभाव करने में चूके तो उन्हें घाटा होना तय है.
- कंपनियां छोटे और सीमांत किसानों के साथ कॉन्ट्रेक्ट फार्मिंग करने में दिलचस्पी नहीं दिखाएंगी.
- विवाद होने पर कानूनी लड़ाई में भी किसान कंपनियों के मुकाबले कमजोर साबित होंगे. गुजरात में पेप्सिको कंपनी का विवाद इसका उदाहरण है. आलू की खास किस्म पर अपना दावा करते हुए पेप्सिको ने इसे उगाने वाले किसानों के खिलाफ मामला दर्ज करा दिया था. कॉन्ट्रेक्ट फार्मिंग बढ़ने पर ऐसे विवादों में इजाफा होने की आशंका है.
- कॉन्ट्रेक्ट फार्मिंग अध्यादेश (जिसे विधेयक के रूप में संसद में लाया गया है) में न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) का नहीं, बल्कि मिनिमम गारंटी प्राइस का उल्लेख है, जो कि बाजार से जुड़ा होगा. इसके अलावा इसमें फसलों की कीमत तय करने की प्रक्रिया भी बहुत जटिल रखी गई है. यानी सामान्य किसान किसान को लेकर कंपनियों से मोलभाव करने में चूक कर सकते हैं.
- कॉन्ट्रेक्ट फार्मिंग में विवाद होने पर अदालती के दायरे से बाहर रखा गया है. यानी किसान विवाद होने पर सिविल कोर्ट (Civil Court) नहीं जा पाएंगे. सारे अधिकार एसडीएम (SDM) के हाथ में होंगे. आशंका हैं कि कंपनियों के लिए अधिकारियों को प्रभावित करना आसान होगा.
हालांकि, ये बात सही है कि देश के लिए कॉन्ट्रेक्ट फार्मिंग नई नहीं है. गन्ने की खेती भी चीनी मिलों के साथ कॉन्ट्रेक्ट आधार पर होती है. यहां तक कि 66 फीसदी पोल्ट्री उत्पादन भी कॉन्ट्रेक्ट फार्मिंग के आधार पर होता है. लेकिन जिस तरह से न्यूनतम समर्थन मूल्य की जगह पर बाजार आधारित कीमत की व्यवस्था को लाया गया है और सिविल कोर्ट जाने पर रोक लगाई गई है, उससे किसान कंपनियों के मुकाबले अपने को कमजोर महसूस कर रहे हैं.
इसकी एक वजह यह भी है कि इन विधेयकों को 5 जून, 2020 को कोरोना संकट के बीच अध्यादेश के जरिए लाया गया है. इसके पहले न तो किसानों से बात की गई है और न ही राज्य सरकारों या राजनतिक दलों से. यहां तक कि शिरोमणि अकाली दल जैसे सरकार में शामिल दलों से भी इस पर चर्चा नहीं की गई है. इससे सरकार के दावों पर किसान भरोसा नहीं कर पा रहे हैं.