कोरोना संकट और लॉकडाउन के बीच मोदी सरकार ने जिस अफरा-तफरी में तीनों कृषि अध्यादेशों लाई, इन्हें विधेयक के रूप में संसद से पारित कराया और उसे करोड़ों किसानों पर जबरन थोपने की कोशिश कर रही, उसे लेकर देशभर के किसानों ने तीखा विरोध दर्ज कराया है. इसके खिलाफ सबसे उग्र विरोध पंजाब, हरियाणा, मध्य प्रदेश और तेलंगाना जैसे राज्यों में देखने को मिल रहा है. यहां बीते कुछ दिनों में हजारों किसान कहीं पर ट्रैक्टर मार्च और रैली निकलकर तो कहीं धरना-प्रदर्शन कर इन काले कानूनों को रद्द करने की मांग कर रहे हैं. 25 सितंबर को भी किसान संगठनों ने भारत बंद का ऐलान किया है. खास बात ये है कि इन विरोध प्रदर्शनों में आरएसएस का किसान संगठन ‘भारतीय किसान संघ’ भी शामिल है.
किसान संगठन मोदी सरकार की मंशा पर गहरे सवाल खड़े कर रहे हैं. उनका सबसे बड़ा सवाल है कि क्या सरकार किसानों को देश की करीब 6,900 कृषि मंडियों (एपीएमसी) के बाहर उत्पाद बेचने की आजादी देकर कृषि मंडियों को बंद करना चाहती है? क्या सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी एमएसपी पर फसलों की खरीद से अपने हाथ खींचना चाहती है? और तीसरा सवाल, क्या सरकार कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग यानी अनुबंध खेती के बहाने किसानों को अपने ही खेतों में बंधुआ मजदूर या फिर कॉरपोरेट के हाथों की कठपुतली बनाना चाहती है?
हालांकि, सरकार और कुछ तथाकथित आर्थिक और कृषि विशेषज्ञ इन विधेयकों को लाइसेंस-परमिट राज से किसानों की मुक्ति के रास्ते में मील के पत्थर बता रहे हैं. लेकिन देश भर में इन विधेयकों को लेकर किसान जिस तरह के विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं उसे देखते हुए इसे किसी भी रूप में उनके हित में नहीं कहा जा सकता। किसानों की मांग है कि अगर सरकार की मंशा उन्हें फायदा पहुंचाने की है तो इन विधेयकों के साथ एक कानून लाकर एमएसपी के हक को कानूनी जामा पहनाए.
आइए सबसे पहले देखते हैं कि मोदी सरकार के तीन विधेयकों से किसानों के सामने क्या-क्या मुश्किलें खड़ी होने जा रही हैं. किसानों के विरोध की मुख्य वजह ये है कि इन विधेयकों से परंपरागत मंडी व्यवस्था तबाह हो जाएगी और किसानों को कॉर्पोरेट और बाजार की ताकतों की दया पर निर्भर रहना पड़ेगा. दरअसल, किसानों का मानना है कि ‘वन नेशन, वन एग्री मार्केट’ यानी ‘एक देश-एक कृषि बाजार’ का सिद्धांत एक छलावे से ज्यादा कुछ नहीं है. सरकार इनका सब्जबाग दिखाकर अनाज खरीद की पूरी प्रक्रिया और प्रणाली को निजी हाथों में सौंपना चाहती है. तभी किसानों की आजादी के नाम पर आवश्यक वस्तु अधिनियम में संशोधन और अनुबंध खेती यानी कांट्रैक्ट फार्मिंग को भी बड़े पूंजीपतियों के अनुकूल बनाया गया है. निजी खरीदारों के बाजार में आने के बाद दाम को लेकर अगर कोई विवाद होता है तो उसे निपटाने के लिए कानूनी मदद के रास्ते भी बंद कर दिए गए हैं या कह लीजिए सीमित कर दिए गए हैं, जिससे किसानों के शोषण की गुंजाइश कई गुना बढ़ गई है.
अगर हम इन अध्यादेशों के इतिहास में झांकें तो इन्हें 21 जनवरी 2015 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को सौंपी गई शांता कुमार समिति की सिफारिशों के आधार पर लाया गया है. इसमें साफ-साफ कहा गया है कि देश में न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी एमएसपी की व्यवस्था की जरूरत अब नहीं है. समिति ने एमएसपी के ऊपर बोनस देने की प्रथा को भी खत्म करने की सिफारिश की है. हालांकि, हरियाणा और पंजाब में बोनस 2015 से ही बंद है, जबकि मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में चुनावी कारणों से ये पिछले साल तक जारी रहा है. ये बात अलग है कि बोनस हासिल करने के लिए किसानों को महीनों पापड़ बेलने पड़े हैं. और इन प्रदेशों में हजारों किसानों का इंतजार आज भी खत्म नहीं हुआ है.
इसमें एमएसपी को लेकर मोदी सरकार की बाजीगरी को भी समझना जरूरी है. चूंकि, एमएसपी पर की गई खऱीद का इस्तेमाल एफसीआई के माध्यम से राज्यों की जन वितरण प्रणाली (पीडीएस) के लिए होता है. लिहाजा ये सिफारिश भी की गई कि एमएसपी पर फसलों की खरीद की जगह पर ये पैसा सीधे राज्यों को ही दे देना चाहिए और वो खुद ही खुले बाजार से खरीदारी का काम करें. जब एक बार राज्य सरकारें खुले बाजार से पीडीएस के लिए अनाज खरीदने लगेंगी तो एफसीआई, अप्रत्यक्ष रूप से केंद्र सरकार, का अनाज के परिवहन और भंडारण पर आने वाला सालाना 15 हजार करोड़ रुपये का खर्च बच जाएगा. इसका एक मतलब यह भी है कि एफसीआई के गोदामों की जरूरत नहीं रह जाएगी यानी धीरे-धीरे एफसीआई के गोदामों को भी बंद किया जा सकेगा.
सरकार इस दिशा में कितनी तेजी से कदम बढ़ा रही है, इसे समझने के लिए सीएसीपी यानी कृषि लागत और मूल्य आयोग की 2019 की सिफारिशों पर नजर डालना जरूरी है. इसमें एमएसपी पर हो रही फसलों की खरीद पर अंकुश लगाने की बात कही गई है. कृषि लागत और मूल्य आयोग ही फसलों पर आने वाली लागत का हिसाब-किताब करता है, जिसके आधार पर केंद्र सरकार फसलों का एमएसपी यानी न्यूनतम खरीद मूल्य निर्धारित करती है. सीएपीसी की 2019 की सिफारिशों के आधार पर ही केंद्र सरकार ने तो पंजाब सरकार को पत्र लिखकर एमएसपी पर खरीद को घटाने की सलाह दी थी. सीएसीपी की 2020 की रिपोर्ट में तो एमएसपी पर अंकुश लगाने के लिए हरियाणा और पंजाब का नाम तक ले लिया गया है.
नए विधयकों के मुताबिक, केंद्र सरकार ने एपीएमसी यानी कृषि उत्पाद विपणन समितियों को तो हाथ नहीं लगाया है लेकिन उन्हें निषप्रभावी बनाने के सारे इंतजाम कर डाले हैं. यानी अब किसान अनाज मंडियों की जगह खेत, वेयरहाउस, कोल्ड स्टोरेज से लेकर कहीं भी अपने अनाज को बेच सकता है, उन्हें कृषि मंडी जाकर उत्पाद बेचने की बाध्यता खत्म कर दी गई है. खास बात ये है कि उन्हें इस खरीद-बिक्री के लिए कोई मंडी शुल्क भी नहीं चुकाने होंगे, जबकि पहले उन्हें कहीं भी कृषि उत्पाद बेचने पर मंडी शुल्क चुकाना पड़ता था. अब आप ही बताइए कि अगर मंडी के बाहर माल बेचने पर टैक्स नहीं देना होगा तो अनाज मंडियों की क्या उपयोगिता रह जाएगी? फिर उन्हें धीरे-धीरे बंद होने से कौन रोक पाएगा? दरअसल नए अध्यादेशों में यही सब्जबाग दिखाकर किसानों को गुमराह करने की कोशिश की गई है। जबकि कृषि मंडी और न्यूनतम समर्थन मूल्य ना केवल किसानों को फसलों की कीमत की गारंटी देता है बल्कि उन्हें वैकल्पिक बाजार और दाम भी मुहैया कराता है.
किसान संगठनों की असली चिंता की वजह यही है. क्योंकि पहले तो मंडी के बाहर कारोबार में किसानों को मुनाफा होता प्रतीत होगा. लेकिन एकबार जब ये कृषि मंडियां यानी एपीएमसी बंद हो जाएंगी तो देशभर में फसलों के सारे ट्रेड पर कॉरपोरेट घरानों और बड़े कारोबारियों का कब्जा हो जाएगा. जाहिर है कि वो अपना संगठन बना लेंगे और फिर किसानों से मनमानी कीमत पर फसल खरीदेंगे. उन्हें बहुत कम कीमत पर अपनी फसल बेचने को मजबूर कर देंगे, क्योंकि एमएसपी पर खरीद की व्यवस्था खत्म होने और वैकल्पिक बाजार के रास्ते बंद होने के बाद किसानों के सामने उनके रहमोकरम पर जीने के सिवाय कोई दूसरा विकल्प नहीं बचेगा. केंद्र सरकार भी एपीएमसी का ढांचा ध्वस्त होने के बहाने अपने हाथ खड़े कर लेगी. एमएसपी जो आज किसानों का एक बहुत बड़ा संबल है, उनके हाथों से छिन जाएगा.
इतना ही नहीं, इन नए विधेयकों में निजी इकाइयों को कृषि उत्पादों के लिए इलेक्ट्रॉनिक व्यापार प्लेटफॉर्म बनाने की अनुमति भी दी गई है, जिसके माध्यम से खरीद-बिक्री राज्य के अंदर और दूसरे राज्यों में भी किया जा सकेगा. हालांकि, केंद्र सरकार इसके संचालन के नियम तय करेगी, लेकिन बाजारों के गठन के लिए किसी लाइसेंस की जरूरत नहीं होगी. यानी किसानों और कृषि उत्पादों पर कॉर्पोरेट घरानों के मुकम्मल कब्जे का पूरा इंतजाम इन विधेयकों में है. खास बात ये है कि विवाद की सूरत में आप सब-डिवीज़नल मजिस्ट्रेट यानी एसडीएम या जिला कलेक्टर तक ही जा सकते हैं और उनका फैसला आपको मानना होगा. एसडीएम या कलेक्टर के फैसले के खिलाफ अपील के साधन भी सीमित ही रखे गए हैं. विवादों का निपटारा 30 दिनों के भीतर किए जाने की बात तो विधेयकों में कही गई है लेकिन सामान्य न्यायिक प्रक्रिया के रास्ते बंद कर दिए गए हैं. यानी आप विवाद के इन मामलों को कोर्ट-कचहरी में नहीं ले जा सकेंगे.
कुल मिलाकर इन तीनों विधेयकों के माध्यम से किसानों को ये बताने की कोशिश की गई है कि ‘फॉर्म टु फोर्क’ यानी खेत से थाली तक आने में बिचौलिए की भूमिका को खत्म किया गया है ताकि किसानों को बेहतर दाम मिले और लोगों को कम कीमत पर अनाज मिल सके. जबकि हकीकत ये है कि मोदी सरकार ने किसानों को चासनी में लपेटकर जहर का पुड़िया थमा दिया है. इन कृषि विधेयकों के बहाने मोदी सरकार जहां अपनी जिम्मेदारियों से भागना चाहती है, वहीं राज्य सरकारों को आर्थिक रूप से कमजोर बनाने के सारे इंतजामात भी इनमें हैं.
किसानों को बाजार की आजादी और खुलेपन के नाम पर बड़े कॉरपोरेट घरानों का गुलाम बनाने की कवायद को अमलीजामा पहनाया गया है. अगर ऐसा नहीं है तो मोदी सरकार को न्यूनतम समर्थन मूल्य पर सौ फीसदी फसल खरीदने की गारंटी का कानून बनाना चाहिए. जिसकी मांग को लेकर देशभर के किसान आंदोलित हो रहे हैं. फिलहाल, किसानों की लामबंदी भी न्यूनतम समर्थन मूल्य पर फसलों की खरीदारी को उनका कानूनी हक बनाने को लेकर ही है, जिससे मोदी सरकार लगातार पीछा छुड़ाना चाह रही है.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.)